आज़ादी के संघर्ष ने यह सवाल खड़ा किया था कि आज़ाद भारत का चरित्र कैसा होना चाहिए? ज्यादातर लोग मानते थे कि भारत को समाजवादी व्यवस्था अपनानी चाहिए, लेकिन वास्तविकता में ऐसा हुआ नहीं. 17 अक्टूबर 1949 को जब प्रस्तावना को भारत के संविधान में शामिल किया गया, तब इसमें भारत को "सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य" के रूप में स्वीकार किया गया था. इसके बाद वर्ष 1977 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए इसमें "समाजवादी और पंथनिरपेक्ष" शब्द जोड़े गए. सवाल यह है कि क्या संविधान सभा में भारत को "समाजवादी" मुल्क बनाने की कोई बात नहीं हुई थी? प्रस्तावना में "समाजवादी" शब्द जोड़ना क्या कोई स्वार्थ आधारित राजनीतिक कार्यवाही थी? भारत में व्यवस्था को समाजवादी स्वरूप प्रदान करना कई भारतीय नेताओं का सपना रहा, किन्तु उन्हें यह विश्वास रहा नहीं कि वास्तव में हम समाजवाद ला पाएंगे. इसी सपने को पुनर्जीवित करने की कोशिश थी यह संविधान संशोधन; लेकिन भारत में लोगों को नागरिक बनाने की शिक्षा देने की पहल नहीं हुई, इसका परिणाम यह हुआ कि लोग हिन्दू-मुसलमान-दलित बनते गए, लेकिन भारतीय नहीं बने.
17 दिसंबर 1946 को यानी स्वतंत्रता मिलने से पहले सभा के सदस्य सेठ गोविन्द दास ने कहा था कि "हमारे देश की जो दशा है, उसे देखते हुए हमारा रिपब्लिक लोकतंत्रीय और समाजतान्त्रीय दोनों ही होना चाहिए. समाजवाद से जो लोग घबराते हैं, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि इस समय जिनके पास कुछ नहीं है, वही दुखी नहीं हैं. बल्कि जिनके पास सबकुछ है, वे उनसे ज्यादा दुखी हैं. वे इसलिए दुखी हैं क्योंकि वे भांति-भांति के षड्यंत्र करते हैं. वे ऐसी बातें करते हैं जो नैतिकता की दृष्टि से कभी भी उचित नहीं कही जा सकती. इसे बनाए रख कर सच्चा सुख हासिल नहीं हो सकता है."
समाजवाद की परिभाषा किसी विद्वान की वाणी की मोहताज़ नहीं रही. एन. वी. गाडगिल ने कहा कि "जो प्रतिनिधि यहां एकत्रित हुए हैं, उन पर जो कार्यभार डाला गया है, वह महान और ऐतिहासिक है. मुझे संदेह नहीं है कि वे इस अवसर का सदुपयोग करेंगे और इस प्राचीन देश को स्वतंत्रता के ध्येय तक पहुंचाएंगे. ऐसे समाज की रचना करेंगे, जिसमें मनुष्य की कद्र उसकी संपत्ति से नहीं, उसके गुणों से होगी, जिसमें मनुष्य का चरित्र ही उसकी कसौटी होगा, रुपए-पैसे नहीं; जिसमें अहंकार को तिलांजलि दी जा चुकी होगी और ईर्ष्या जिह्वा से न निकल सकेगी; जिसमें पुरुष और स्त्री अपना मस्तक ऊंचा करके चलेंगे; जहां सब सुखी होंगे क्योंकि सभी समान होंगे. जिसमें धर्म युद्ध-क्षेत्र नहीं होंगे, क्योंकि सभी कर्तव्य की देवी के उपासक होंगे, जिसमें जाति का अभिमान भी नहीं होगा और जाति की हीनता-जनित लज्जा भी नहीं होगी क्योंकि सभी एक जाति के अर्थात कार्यकर्ताओं की जाति के होंगे, जहां सिद्धांत मनुष्य को मनुष्य से पृथक न करेंगे क्योंकि उनका सिद्धांत तो सबकी सेवा करना होगा, जहां स्वतंत्रता और सम्पन्नता प्राप्त होगी क्योंकि किसी को शक्ति या समृद्धि का एकाधिकार प्राप्त नहीं होगा".